1/25/2009

गणतंत्र

एक और गणतंत्र आ गया; गण का तंत्र!

अख़बार की कतरनें और दूरदर्शन की नौजवान वाचिकाएं चीखती और चिल्लाती हैं, हर रोज -- किस गण के लिए है तंत्र! सब कुछ ग़लत है, सभी बेईमान हैं, कोई भविष्य नहीं है, आम आदमी (जैसे कि ये जानते हैं कि आम का मतलब क्या है?) पीड़ित है, सरकारी अफसर निकम्मे और स्वार्थी हैं --अजीब सी कोसने कि होड़ लगी है!

मै मूक दर्शक और पाठक बना हर रोज यह कड़वा घूँट निगलने की कोशिश करता हूँ; यह सोचकर की आज कुछ ऐसा करुँ जिससे कोई तो कहे--यह तेरा, मेरा, सबका बनाया हुआ तंत्र है। हर सुबह थोडी-सी खुशी लेकर लोगों में बांटने कि ईमानदार कोशिश होती है! यह अहसास पूरे समय दिन भर बना रहता है- आओ, थोडी-सी खुशी जिंदगी में मुझसे भी ले लो! जिंदगी इतनी बुरी भी नहीं है, न ही हम सबका बनाया यह तंत्र!

उम्मीद बांटता हूँ मैं, कर लो थोड़ा यकीन

गणतंत्र की किरण चूमेगी फिर जमीन

हलकी उर्जा, थोडी चमक , खुशी महीन

आओ मिलकर बटोरें, छितराएं नहीं..

1/18/2009

इधर उधर की बातें

कई दिन से जिंदगी की आपाधापी में इधर उधर की बातें करने की इच्छा पनप रही थी!
जिंदगी की आपाधापी में कब सुबह होती है या शाम, होश नहीं रहता! हर कोई इतना व्यस्त है कि अपने अन्दर झांकने का वक्त ही नहीं मिलता।
इधर उधर, आस पड़ोस और ख़ुद छूटता जा रहा है, शनैः-शनैः...
क्यों न कुछ इधर उधर कि बातें हों, जिसमे थोड़ा आस पड़ोस हो और बहुत ज्यादा ख़ुद...

देखें, वक्त के साए में इधर उधर जिंदगी कि गर्मी में कितनी छाँव ढूंढ पाता है...
जिंदगी हर वक्त साँस लेती है , इधर-उधर
दूर इससे हम, ढूँढते हैं सुकून ...