5/22/2011

विडम्बना

मुझे तलाश है, उन चौबीस घंटों की, जो सिर्फ मेरे हों.
मै ही निर्धारित करूँ,
कि ब्राम्ह मुहूर्त में कौन सा स्वप्न मुझे दिखे; 
कि किस पक्षी का कलरव मेरे कर्ण को स्पर्श करे;
कि  भास्कर की कौन सी रश्मि मेरे चक्षु युगल को चूमे;
कि कौन सी बांह को अपने मस्तक के ऊपर ले जाते हुए मै एक लम्बी जम्हाई लूं, और
धीरे -धीरे कौन-सी पलक उठाकर इस  उजियारी दुनिया का नया रूप देखूं ;

कि किस करवट अपने घुटनों को मरोड़ते हुए  बिस्तर छोडूँ;
कि दीवार के किस हिस्से में आज एक खिड़की खुले, और
कौन सा पुष्प अपनी सुगंध से मेरे दिलो दिमाग को  सुबासित कर जाए;
कि आज के अखबार में कौन सी खबर पढने के लिए छपे;
कि आज के दिन हर पडोसी बगैर किसी द्वेष और ईर्ष्या के कंपनी बाग़ में सेहत बनाते मिले; 
कि नाश्ते में क्या हो, और उसे ख़त्म करने की रफ़्तार मेरी हो;

कि आज के दिन जब घर से काम पर निकलूँ, तो कोई बच्चा सड़क या दूकान पर ना मिले;
कि कोई किसी मेहनतकश से बदतमीजी ना करे;
 कि किसी भी नुक्कड़ पर कोई भीख ना मांगे; 
कि किसी पैदल राही को सड़क को पहला हक़ मिले; 
कि रास्ते में आने वाले हर हस्पताल में कोई-भी  मरीज जिंदगी की जद्दोजहद का ना मिले;
कि हर सरकारी कार्यालय में कहीं कोई कतार ना बने;

कि शाम को घर लौटते हुए ना कोई शिकन हो ना थकान; 
कि चौखट के भीतर घर के बुजुर्गों से घुलने-मिलने का दौर रहे, और  
तीनों पीढियां बेझिझक, निशंक, सौहार्द भाव से हिले-मिले;
कि बगैर किसी दुस्वप्न के इन सुहाने चौबीस घंटों की एक खुशनुमा चलचित्र  रात की नींद को हल्कि हल्कि थपकी दे जाए.......

विडम्बना देखिये कि साल का हर दिन तो पहले से ही सुपुर्द है, किसी खासमखास शख्सियत के लिए या किसी मकसद के लिए;और
जबतक ऐसा है, वह खुशनुमा चलचित्र एक गुमशुदा ख्वाब है, जिसकी तलाश जारी रहेगी...
इस दिन से उस दिन तक, और इस जन्म से पुनर्जन्म तक...