12/15/2009

गाँधी विलियम शिरेर की नज़र में

विलियम शिरेर chicago ट्रिबुने का पत्रकार था, और उसने दूसरे विश्व युद्ध पर प्रसिद्ध रिपोर्ताज लिखी। 'तीसरे रिच (REICH) का उत्थान और पतन' उसकी प्रसिद्ध रचना है। दूसरे विश्व युद्ध के पूर्व वह भारत भी आया था , एक पत्रकार के रूप में । १९७९ में, भारत छोड़ने के ४८ वर्ष बाद , उसने 'गाँधी : एक संस्मरण' प्रकाशित की। पिछले ३० वर्षों में यह किताब मुझे पहली बार अबेर य्स्त्वय्थ विश्वविद्यालय (वेल्स) के पुस्तकालय में मिली। किसी 'सुंदर कबाड़ी' (१८९८-१९८३) के व्यक्तिगत संग्रह से दान में दी गई! (हमारे यहाँ दान में dene और लेने की परम्परा विश्वविद्यालयों में है या नहीं?)
२४५ पन्नों की इस किताब में १५ अध्याय हैं। अगर आपने गांधी फ़िल्म देखी है, तो बहुत सारी समानताएं तथ्यों के रूप में मिल जायेगी। पर किताब पढ़ने का अपना आनंद है। नमक सत्याग्रह के बाद शिरेर भारत आया, एक अद्वुत आन्दोलन का सही ब्यौरा विश्व, खासकर अमेरिका, के सामने प्रस्तुत करने।
पूरी किताब में गाँधी एक तिलस्म की तरह नज़र आते हैं। एक ऐसा तिलस्म, जो बेहद मायावी, पर बेहतरीन है। काटने-मारने पर उतारू इस दुनिया में एक सुकून की तरह! गज़ब का आत्म विश्वास, आम आदमी पर मजबूत पकड़ , अत्यन्त सुलझा हुआ और लक्ष्य पर पार्थ सी नज़र! शिरेर की किताब एक आइना है, आन्दोलन की पेचीदिगियों में झांकने का। पूरी किताब में अटूट धैर्य की मिसाल के रूप में गाँधी दिखते हैं। बारीक से बारीक जानकारी रखना, तार्किक कौशल, श्रोता की मनःस्थिति पर अद्वुत पकड़, बगैर उत्तेजित हुए अपनी बात धीरे-धीरे पर मजबूती से रखने की कला, गाँधी को उम्दा कुतनितिग्यबनाती। गाँधी-इरविन और गाँधी-वेलिंग्टन वार्तालापों के बीच शिमला का बेहतरीन वर्णन औपनिवेशिक दुनिया के नए आयाम खोलती है।
एक पूरा अध्याय मार्च १९२२ के प्रसिद्ध कोर्ट दृश्य पर है, जहाँ गाँधी अपने आपको दोषी मानते हैं, पर कारणों का लेखा-जोखा देते हुए जज को नैतिक कारणों से इस्तीफा देने की सलाह देते हैं ; जज अभिभूत होता है, और उन्हें तिलक सी सजा देता है। ऐसे कई दृश्य पूरी किताब में हैं जो आपको वशीभूत करते हैं। ब्रिटेन में गाँधी भ्रमण और तत्कालीन अखबारों - times, observer, sunday express - की मानसिकता का चित्रण आपको मिल जाएगा इसमे.
यह किताब एक इतिहासकार ने नहीं, बल्कि एक पत्रकार, जो ब्रिटिश या भारतीय नहीं है, ने लिखी है. पठनीय है, पूरी तरह.

अगर आप इतिहास के उस दौर को महसूस करना चाहते हैं, जिसने आज का भारत बनाया है, तो इसे पढ़ना अनिवार्य है...

12/08/2009

दूर देश में

देश क्या है?

एक भौगोलिक परिमिति, एक राजनैतिक विचारधारा, एक सांस्कृतिक अवधारणा, एक आर्थिक बाँध, या बस एक जूनून !

अपना देश, अपना राष्ट्र, अपना..अपना..

क्या लगभग चार हज़ार वर्ष पूर्व, हरप्पा-मोहन्जोदारो-कालीबंगन-धोल्विरा सभ्यता के समय भी देश रहा होग़ा!लिपि तो हम पढ़ नहीं पाये अब तक, इसलिए अनुमान पर ही इस बेमिसाल सभ्यता की रूपरेखा बनाते आए हैं। नगरी सभ्यता, जो व्यापार में परिपक्व थी, अपने समकालीन सभ्यताओं से जुड़ी थी। इस सभ्यता को जीवन मिलता था चारों ओर से घिरे कृषक गांवों से ! तो क्या यह देश था? यहाँ बसने वाले लोग क्या किसी एक विचारधारा से जुड़े से थे? क्या सभी एक सा क़ानून या नियम का पालन करते थे? क्या मुद्दे उन्हें जोड़ते थे? खुदाई में मिली चीज़ों से यह ताना-बाना बुनने की कोशिश की गई है की यह सभ्यता पूरे भोगोलिक क्षेत्र में लगभग एक समान थी! पर उनका जीवन दर्शन क्या था? समाज और समुदाय की क्या विशिष्टताएं थीं? देश की कोई परिकल्पना थी या नहीं? उत्तर अभी भी कई पहेलियों में लिपटा है, अब तक !
आर्यावर्त हमारी सांस्कृतिक अवधारणा का सर्वोत्कृष्ट द्योतक रहा है अब तक! निस्संदेह आर्यावर्त आर्य समुदाय से जुड़ा है। आर्य कौन? काल को लेकर मतभेद जारी है? कोई कहता है कि बाहर से आए, तो कोई इसे इस भोगोलिक क्षेत्र (उत्तर भारत) का ही निवासी बताते हैं। चाहे जो भी हो , इसमे कोई संदेह नहीं कि आर्य शब्द अब हिंदू मानस के पटल पर पूर्णतया अंकित है। किसी भी धार्मिक या सांस्कृतिक अनुष्ठान में अत्यन्त सहजता और सरलता से इसका प्रयोग होता है। सभी आर्य संताने हैं और इसलिए आर्यावर्त निवासी! आपसी भेदभाव से परे,हिंदू धर्म के सभी पालकों के लिए आर्यावर्त एक चिरंतन सत्य है। यह भौगोलिक परिसीमा से परे मानसिक जुड़ाव है।
अगर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें, तो रामायण कि पंक्ति याद आती है :
जननी जन्मभूमि श्च स्वर्गादपि गरीयसी, ना मी अपि स्वर्णमयी लंका लक्ष्मण।
नेपाल के राष्ट्रीय चिन्ह में पहला हिस्सा आज मौजूद है । विद्यालय के निबंधों में काफी इस्तेमाल इस सूक्ति का हुआ है।
गौर तलब है कि अपनी जन्मभूमि दूसरे से बेहतर है, यह विचार तब भी था और आज भी है! पर यह जन्मभूमि कहाँ से कहाँ तक है, यह मुद्दे का विषय है।
आज के संदार्व में राष्ट्र क्या है? पाश्चात्य विचार के अनुसार इसके द्योतक हैं- एक संविधान, एक ध्वज, एक गीत, एक भाषा, एक मुहर, एक नोट। आज़ाद भारत में भी यह सब है। पर इतना ही नहीं, इससे काफी आगे भी है। २९ भाषाएँ १० लाख(प्रत्येक) से ज्यादा लोग बोलते हैं; १२२ भाषाएँ दस हज़ार(प्रत्येक) से ज्यादा! २००० से अधिक सामुदायिक वर्ग हैं। हिंदू, मुस्लिम, सिख, जैन, बौद्ध सरीखे धर्म मौजूद हैं। होली, दीपावली, ईद, क्रिसमस, दुर्गापूजा, पोंगल, ओणम, वैसाखी, -- सभी त्यौहार मानते हैं। क्रिकेट और हिन्दी फिल्मों का बोलबाला है। जोड़ते हैं देश को यह।
पर क्या यह सर्वोपरि है- स्व से, परिवार से, विरादरी से, जातीयता से, भाषाई समरूपता से? अगर युद्ध न हो, खेल बंद हों, फिल्मों का प्रदर्शन रुका हो, तब भी क्या राष्ट्र हम विद्यालय कि पुस्तकों से बाहर ढूंढ पायेंगे? तेलंगाना, मराठवाडा, गोरखालैंड क्या हमारे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं? विगत सालों में ऐसा कई बार हुआ है, और हमें शर्मिंदगी उठानी पड़ी है। कहीं भारतीयता पाश्चात्य राष्ट्रवाद की परिभाषा में सिमट तो नही रही
अगर ऐसा है तो नए मानक गढ़ने चाहिए, और अगर कोई मानक वर्तमान में राष्ट्र कि अवधारणा में योगदान देता है, तो उसे भरपूर बढावा देना चाहिए- पर, kaise ? आप भी सोचें, मैं भी जुगाली करता हूँ .........

2/14/2009

वैलेंटाइन दिवस के बहाने

वैलेंटाइन दिवस की उहा-poh पोह,

पिछले एक हफ्ते से ब्रेकिंग न्यूज़ के रूप में मुतालिक और उनकी सेना के विचारों से मध्यवर्गीय मानस को आक्रांत किया जा रहा था- वैलेंटाइन दिवस और भारतीय प्यार का द्वंद्व। प्यार का खुल्लमखुल्ला प्रदर्शन, नहीं... प्यार करना है तो बेडरूम में जाओ! खुल्लमखुल्ला प्रदर्शन करना है तो पहले एक चुटकी सिन्दूर डलवा लो... वाह रे भारतीय संस्कृति!

संस्कृति के खतरे और उन्हें निर्धारित करने वाले ये ठेकेदार...

एक फ़िल्म, american history x, देखने का मौका मिला था, जो neo-नाज़ी विचारधारा अमेरिका में लाना चाहते हैं . वर्ण व्यवस्था और उसके द्वंद्व का सहज परन्तु कारुणिक चित्रण है, इसमे. हम भी तो इससे जूझ रहे हैं... अलग अलग स्तर पर, अलग अलग मुद्दों से..

क्या है हमारी संस्कृति? कोई जड़ या कोई स्थिर अवस्था? किस विचारधारा का हम पालन करते हैं और किसे हम फलते-फूलते देखना चाहते हैं..

क्या हमारी संस्कृति किसी valentine  दिवस की फूँक से उड़ जायेगी, या इससे और मजबूत होगी..

2/01/2009

बसंत पंचमी के बहाने

बसंत पंचमी!


कितने वर्ष बीत गए, जब माँ सरस्वती की आराधना का दिवस धूमधाम से मनाया करता था


लगभग एक महीने की तैयारी के बाद इस दिन वीणा वादिनी की प्रतिमा के समक्ष हम सभी विद्यार्थी पूरी श्रद्धा के साथ नत मस्तक हो निराला की पंक्तियाँ गाते थे--


वर दे वीणा वादिनी वर दे,


प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव,


भारत में भर दे...


संस्कृति से जुडाव का, विद्यालय स्तर पर इससे बेहतर और कोई आयोजन मुझे नज़र नहीं आता था...


बीते वर्षों में बहुत कुछ यहाँ बदला है। क्या यह बदलाव समाज में बदलते मूल्यों का बदलाव नहीं है! क्या हमें नए मानक गढ़ने चाहिए इन मूल्यों को परखने के लिए! नए समाज का नया मानक होना ही चाहिए। कोई भी मानक चिर स्थायी नहीं हो सकता। गति प्रकृति का नियम है, यह एक सतत प्रक्रिया है। परन्तु क्या हमने नए मानक गढ़ने के सही प्रयास किए हैं? क्या हममे क्षमता है, नए मानक गढ़ने की? यह दायित्व हम सबका है...

1/25/2009

गणतंत्र

एक और गणतंत्र आ गया; गण का तंत्र!

अख़बार की कतरनें और दूरदर्शन की नौजवान वाचिकाएं चीखती और चिल्लाती हैं, हर रोज -- किस गण के लिए है तंत्र! सब कुछ ग़लत है, सभी बेईमान हैं, कोई भविष्य नहीं है, आम आदमी (जैसे कि ये जानते हैं कि आम का मतलब क्या है?) पीड़ित है, सरकारी अफसर निकम्मे और स्वार्थी हैं --अजीब सी कोसने कि होड़ लगी है!

मै मूक दर्शक और पाठक बना हर रोज यह कड़वा घूँट निगलने की कोशिश करता हूँ; यह सोचकर की आज कुछ ऐसा करुँ जिससे कोई तो कहे--यह तेरा, मेरा, सबका बनाया हुआ तंत्र है। हर सुबह थोडी-सी खुशी लेकर लोगों में बांटने कि ईमानदार कोशिश होती है! यह अहसास पूरे समय दिन भर बना रहता है- आओ, थोडी-सी खुशी जिंदगी में मुझसे भी ले लो! जिंदगी इतनी बुरी भी नहीं है, न ही हम सबका बनाया यह तंत्र!

उम्मीद बांटता हूँ मैं, कर लो थोड़ा यकीन

गणतंत्र की किरण चूमेगी फिर जमीन

हलकी उर्जा, थोडी चमक , खुशी महीन

आओ मिलकर बटोरें, छितराएं नहीं..

1/18/2009

इधर उधर की बातें

कई दिन से जिंदगी की आपाधापी में इधर उधर की बातें करने की इच्छा पनप रही थी!
जिंदगी की आपाधापी में कब सुबह होती है या शाम, होश नहीं रहता! हर कोई इतना व्यस्त है कि अपने अन्दर झांकने का वक्त ही नहीं मिलता।
इधर उधर, आस पड़ोस और ख़ुद छूटता जा रहा है, शनैः-शनैः...
क्यों न कुछ इधर उधर कि बातें हों, जिसमे थोड़ा आस पड़ोस हो और बहुत ज्यादा ख़ुद...

देखें, वक्त के साए में इधर उधर जिंदगी कि गर्मी में कितनी छाँव ढूंढ पाता है...
जिंदगी हर वक्त साँस लेती है , इधर-उधर
दूर इससे हम, ढूँढते हैं सुकून ...