12/16/2010

गुरुदत्त

गुरुदत्त उर्फ़ बसंत कुमार पदुकोने हिंदी सिनेमा के लिए एक पहेली की तरह हैं. उनकी तीन फ़िल्में - प्यासा (१९५७), कागज़ के फूल (१९५९), और साहब बीबी और गुलाम (१९६२)- हमेशा से सिनेप्रेमियों के लिए तीर्थ की तरह हैं. इन श्वेत-श्याम फिल्मों ने भारतीय सिनेमा को वैश्विक पहचान दी है. समय गुजरने के साथ ये और बेहतरीन दिखती हैं. कहानी, पटकथा, गीत-संगीत, अदाकारी, निर्देशन  की बारीकियां, छायांकन, प्रकाश और अन्धकार का संयोजन, और सामाजिक सरोकार, सभी ने इन फिल्मों को classic बनाया है.
पहली दो फिल्मों का निर्देशन गुरुदत्त ने किया और तीसरी का अबरार अल्वी ने.'प्यासा' एवं  'साहब बीबी और गुलाम' को दर्शकों ने काफी सराहा, पर 'कागज़ के फूल' नकार दी गयी. 
'प्यासा' की कहानी चंद्रशेखर प्रेम के उपन्यास पर आधारित है; पर इसकी पटकथा को सशक्त बनाया अबरार की कलम ने. मौकापरस्त ज़माने में कवि की कशमकश और समाज के अनजान, पर रोजमर्रा के चरित्रों का बड़प्पन, इन सबके इर्द-गिर्द घुमती है कहानी. साहिर के गीतों की तल्खियाँ आज इस फिल्म की पहचान सी बन चुकी हैं. 
'कागज़ के फूल' को 'सिटिज़न केन' (१९४१) सी कलात्मक उत्कृष्टता का दर्ज़ा उपलब्ध है. फिल्म के कई दृश्य आज सिनेमा की प्रमुख किताबों (जैसे ऑक्सफोर्ड बुक ऑफ़ सिनेमा) में दर्ज हैं.  कैफ़ी की 'देखी ज़माने की यारी' पूरे समय कहानी में गूंजती रहती है. दोनों फिल्मों में तत्कालीन समाज के दोगलेपन का अंकन  है तो, इन दोनों से दीगर 'साहब, बीबी और गुलाम' सामंती युग के ढहते चरित्र को उकेरता है. यह फिल्म प्रसिद्द उपन्यासकार बिमल मित्र के प्रसिद्द उपन्यास पर आधारित है. 

अगर मैं इन तीनों फिल्मों की खूबियाँ ढूंढूं तो  वो कुछ इस तरह दीखती हैं :
१. साहिर, कैफ़ी और शकील के बेहतरीन गीत 
२. बर्मन दादा और हेमंत कुमार का खूबसूरत संगीत 
३. मूर्ती की लाजवाब सिनेमाटोग्राफी 
४. मीना कुमारी की लरजती आवाज़ 
५. 'साकिया आज मुझे नींद नहीं आएगी' का फिल्मांकन
६. 'जिन्हें नाज़ है हिंद पर'
७. गीता दत्त का दिल को छूनेवाला स्वर    
८. रहमान की  उत्कृष्ट अदाकारी ........... 








     

12/12/2010

वसंत कुमार

३९ वर्ष की जिंदगी वसंत  कुमार  शिवशंकर  पादुकोन ने  इस धरा पर बितायी.१० अक्टूबर १९६४ उसने अपने आप को मुक्त कर दिया. क्यों ? आज भी रहस्य की परतों में छुपा है यह.

इस वसंत कुमार ने लगभग दो दशक हिंदी सिनेमा को दिया. आज ४६ वर्ष के बाद भी ये प्रासंगिक हैं. अमिताभ उनकी एक फिल्म बीस से ज्यादा बार देखने का दावा करते हैं! times की १०० बेहतरीन फिल्मों की लिस्ट में उनकी दो फिल्मों को चुना गया. फिल्मों का हर जानकार उनके कलात्मक निर्देशन की दाद देता है. हर नया निर्देशक उनकी फिल्मों को देखना चाहता है, समझना चाहता है. 

इस बेहतरीन फनकार ने choreographi से अपनी फ़िल्मी जीवन की शुरुआत की, फिर सहायक निर्देशन और अंत में १९५१ में पहला निर्देशन. इसके बाद अगले पांच सालों तक कई सफल फिल्मे दर्शकों तक पहुंची.
साल १९५७. हिंदी सिनेमा के लिए अविस्मर्णीय. शांताराम की 'दो आँखें बारह हाथ', महबूब की 'मदर इण्डिया', बी. र. चोपड़ा की 'नया दौर' दर्शकों और समीक्षकों ने खूब सराही. तीन बेहतरीन निर्देशकों- हृषिकेश (मुसाफिर), नासिर हुसैन (तुमसा नहीं देखा) और विजय आनंद(नौ दो ग्यारह) - ने इस वर्ष पहली बार अपनी फ़िल्में पेश की. 

इतने कलात्मक वर्ष में वसंत कुमार की नयी फिल्म ने एक ऐसी मिसाल रखी, जो आज भी प्रासंगिक है. इस फिल्म के गीतों  का दायरा बंगाल के बॉल संगीत से शुरू होकर खालिस उर्दू शायरी तक जा पहुंचता है. साहिर की उम्दा शायरी और बर्मन दादा की  जमीनी मौशिकी. कहानी का श्रेय अबरार अल्वी को दिया जाता है, जिन्होंने १९६२ में इन्ही वसंत कुमार की एक फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशन का filmfare पुरस्कार  जीता. 

अब तो आप जान चुके होंगे कि मै किनकी बात कर रहा हूँ!!!     (जारी)    

12/11/2010

तू जिंदा है ...

शैलेन्द्र के गीत सीधे, सरल और सपाट से लगते हैं. न घुमाव है न ही उलझाव. आम हों या खास, आप सबके लिए सुलभ हैं ये गीत. मुझे प्रेमचंद सी सच्चाई दिखती है शैलेन्द्र के गीतों में. प्रेमचंद प्राथमिक कक्षा के बच्चे भी पढ़ते है और स्नातकोत्तर के छात्र भी.

शैलेन्द्र के गीतों का दायरा काफी फैला हुआ है. मौसम, रिश्ते-नाते, जीवन मूल्यों पर लिखे ये गीत सदाबहार हैं. इस सन्देश में मैं उनके फ़िल्मी गीतों का जिक्र नहीं करूंगा. वो फिर कभी!

यहाँ प्रस्तुत है शैलेन्द्र की एक बेजोड़ कृति जिसमे मुर्दों को जगाने की ताकत है. आज़ादी के दौर में लिखी यह रचना पहली बार शायद तीसरी कक्षा में सुनी थी. जोशीली रचनाएं कई सुनी हैं. पर इसकी बात ही कुछ और है. आपकी सहमति पढने के पश्चात् पूछूँगा.

"तू जिंदा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर. तू जिंदा है ....

ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन,
ये दिन भी जायेंगे गुज़र, गुज़र गए हज़ार दिन.
कभी तो होगी इस चमन पे भी बहार की नज़र,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर. तू जिंदा है... 

हमारे कारवां को मंजिलों का इंतज़ार है,
ये आँधियों, ये बिजलियों की पीठ पर सवार है.
तू आ कदम मिला के चल, चलेंगे एक साथ हम,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर. तू जिंदा है ...

ज़मीं के पेट में पली अगन, पले हैं ज़लज़ले,
टिके न टिक सकेंगे भूख रोग के स्वराज ये,
मुसीबतों के सर कुचल चलेंगे एक साथ हम,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर. तू जिंदा है...
 
बुरी है आग पेट की, बुरे हैं दिल के दाग ये,
न दब सकेंगे, एक दिन बनेंगे इन्कलाब ये,
गिरेंगे ज़ुल्म के महल, बनेंगे फिर नवीन घर,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर. तू जिंदा है...  "

(धन्यवाद उनका जिन्होंने इसे वेब पर उपलब्ध करवाया है)

11/28/2010

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग


  
 फैज़ (१९११-१९८४) की शायरी एक अहसास है जो जिंदगी की जदोजहद से आपको जोडती है. अफ़सोस इनके नगमों की चर्चा भूली बिसरी बात होती जा रही है. जरूरी है कि ये खूबसूरत और दिलों-दिमाग को झकझोरने वाले नगमे हमेशा हमारी दिनचर्या में मौजूद रहें. कई बेहतरीन नगमों में से एक 'मुझसे पहली सी' पेश है. धन्यवाद उनका जिन्होंने इसे साइबर दुनिया में उपलब्ध कराया है.


 मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग
        मैने समझा था कि तू है तो दरख़्शां1 है हयात2
       तेरा ग़म है तो ग़मे-दहर3 का झगड़ा क्या है
       तेरी सूरत से है आलम4 में बहारों को सबात5
       तेरी आँखों के सिवा दुनिया मे रक्खा क्या है
       तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ6 हो जाये
       यूँ न था, मैने फ़क़त7 चाहा था यूँ हो जाये

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा

राहतें8 और भी हैं वस्ल9 की राहत के सिवा
         अनगिनत सदियों से तरीक़ बहीमाना तिलिस्म10
         रेशमो-अतलसो-किमख़्वाब में बुनवाये हुए11
         जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ए-बाज़ार में जिस्म
         ख़ाक में लिथड़े हुए, ख़ून मे नहलाये हुए
         जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों12 से
         पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों13 से

        
        लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
        अब भी दिलकश14 है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे
       और भी दुख हैं ज़माने मे मोहब्बत के सिवा
       राहतें और भी हैं वस्ल15 की राहत के सिवा
 मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग
  1.  प्रकाशमान
  2.  जीवन
  3.  सांसारिक चिंताएँ
  4.  दुनिया
  5.  स्थायित्व
  6.  तक़दीर सिर झुका ले
  7.  केवल
  8.  सुख
  9.  मिलन
  10.  प्राचीन अज्ञानपूर्ण अंधविश्वास रूपी तिलिस्म
  11.  एक प्रकार के कीमती वस्त्र
  12.  शरीर रूपी तंदूर से रोग के कारण निकले हुए
  13.  घाव
  14.  आकर्षक
  15.  मिलन

11/24/2010

जाड़े की धूप

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना हिंदी साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर रहे हैं. 
मौसम हमारी जीवन संस्कृति से किस कदर जुड़ा है, इसकी एक बानगी सर्वेश्वर 
की इस सरल कविता में झांकें:
  
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया

ताते जल नहा पहन श्वेत वसन आयी
खुले लान बैठ गयी दमकती लुनायी
सूरज खरगोश धवल गोद उछल आया।
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।

नभ के उद्यान-छत्र तले मेज : टीला,
पड़ा हरा फूल कढ़ा मेजपोश पीला,
वृक्ष खुली पुस्तक हर पृष्ठ फड़फड़ाया।
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।

पैरों में मखमल की जूती-सी-क्यारी,
मेघ ऊन का गोला बुनती सुकुमारी,
डोलती सलाई हिलता जल लहराया।
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।

बोली कुछ नहीं, एक कुर्सी की खाली,
हाथ बढ़ा छज्जे की साया सरकाली,
बाँह छुड़ा भागा, गिर बर्फ हुई छाया।
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।
                           - सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

11/19/2010

facebook : तकनीक और तृष्णा का घालमेल

तकनीक हमारी जिंदगी को आसान नहीं, बल्कि जटिल बनाता है! इस अकूत सत्य को स्वीकारना कडवे नीम को चबाना सदृश है.आधुनिक मनुष्य नित नयी खोजों के साथ जिंदगी को सहज और सरल बनाने का दावा पेश करता है. बाज़ार इन नयी उत्पत्तियों को मादक चाशनी में लपेट उपभोग का मायाजाल बुनता है. भौंचक आप इस चुम्बकीय डोरी को पकड़ने की कोशिश करते हैं. आपकी तृष्णा-अर्थ, काम या धर्म- अवचेतन से चेतन तक का सफ़र तय करने के लिए जोर मारने लगती है. तकनीक का तृष्णा से गहरा रिश्ता बनता है, शनैः शनैः. इन्हीं तकनीकों में से एक है facebook .

facebook पिछले ६ सालों में एक धूमकेतु की तरह तकनीक की दुनिया का सर्वमान सितारा बन चुका है. लगभग ७०० अरब रुपये के बाज़ार भाव वाली इस तकनीक ने इंसानी गप्पबाज़ी को मोहरा बनाया और बिखरती संवाद विहीन होती दुनिया (हालांकि यह दुनिया आज भी उन तक सीमित है जो समर्थ और सक्षम कहलाते हैं ) को अपने कब्जे में ले लिया है. हर कंप्यूटर साक्षर मनुष्य इससे प्रभावित है. हर कोई मित्र है और मित्रता की नयी परिभाषा गढ़ी जा रही है.  आप किसी को भी नेवता दे सकते हैं, मित्र बनने का या बनाने का. एक क्लिक और मित्र की गिनती बढ़ जाती है. धीरे धीरे एक ऐसा समूह (समाज नहीं) तैयार हो जाता है, जहाँ  रिश्तों की मर्यादा के मायने बदल रहे हैं. पुरानी यादें ताज़ा तो होती हैं, पर भूले बिसरे घाव भी उभरने लगते हैं. संवाद की नयी ईमारत, जिसकी नीव पर प्रश्नचिन्ह लगा है, खड़ी हो जाती है, जो बाहर से अत्यंत आकर्षक और मनमोहक नज़र आती है. इस दुनिया में आप अपने आपको सुरक्षित और भरोसेमंद पाते हैं. आप अपनी क़द्र और अहमियत यहाँ तलाशते हैं. पर अन्दर से आप जानते हैं, कि ऐसा नहीं है. यहाँ ज्यादा लोग हैं, मित्र नहीं! इस नए समूह का चरित्र भरोसे वाला तो कदापि नहीं है. किस तरह और कब  आपकी जिंदगी के बेहद  अपने भाव आम में बदल जाते  हैं, आप जान भी नहीं पाते. आप अपनी जिंदगी के सबसे बड़े सच 'स्व' को धीरे धीरे तिरोहित कर देते हैं  अपने नए मित्रों के सहयोग से आपको आभाष भी नहीं होता.

यह नयी दुनिया है. तकनीक की तृष्णा से घुली मिली दुनिया. यहाँ हर सम्बन्ध एक सा है, वगैर किसी तह का. वास्तविक जिंदगी से, जहाँ हर सम्बन्ध अनूठा और जुदा है,  ये काफी अलग है.  आप वसुधैव कुटुम्बकम के तिलस्म में धीरे धीरे खोते जा रहे हैं. इसका हश्र क्या होगा? एक पुरानी सूक्ति याद आ रही है, जो मुझे इससे जुडी दिखती है :
      facebook 'स चरित्रं, मनुष्यश भाग्यम,
      देवो ना जानाति कुतो मनुष्यः!      

7/15/2010

हवा बदलिए (दो)

(आगे) 
आधुनिक इंसान को अगर कोई समस्या सुलझाने के लिए कहा जाए तो वह या तो प्रतिउत्पनमतित्व का रास्ता अपनाएगा या जय हो गूगल महाराज का जय घोष कर निदान लाएगा. धनेसर पुरातन था, आजादी के पहले सांस ली, आँखें खोली और रोया भी .. आधुनिक होने की पहली शर्त है.. स्वतंत्र भूमि में जन्म लेना. पर धनेसर के बप्पा ने कुछ जल्दी कर दी क्योंकि चर्चिल के चुनाव में हारने की खबर  और  एटली के इरादे उन तक पहुँच नहीं पाए थे.. खैर अब गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या फायदा ..


पुरातन इंसान को समस्या सुलझाने में वक्त लगता है.. जैसे बकौल गुलेरी 'मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ़ हो जाती है..', वैसे ही यह इंसान अपने बीते दिनों की तह में जाता है, आज के सवाल का हल खोजने.. 


अब  धनेसर को क्या मालूम कि जलवायु परिवर्तन का तूफ़ान तो खासा ताज़ा है.. हज़ारो सूरमा वैज्ञानिकों की मशक्कत और मिहनत से हम समझ पा रहे हैं कि  हिमालय पिघल रहा है ..समंदर में पानी बढ़ रहा है और प्रलय आने वाला है.. वैसे ये और बात है कि दुनिया में इसकी जंग भी छिड़ी हुई है कि 'क्या ये सच है या सच का पहाड़' .. पर इतना तो सच है कि इस ताजे तूफ़ान से कई लोगों का चूल्हा जल रहा है, कई रोटियां सेक पा रहे हैं..और ब्रेकिंग  न्यूज़ के रास्ते हर समय उधम मचा रहे हैं.. धनेसर इन सबसे परे अपने पोते के लिए कुछ तलाश रहा था ...


खिलावनपुर के उस प्राथमिक स्कूल में, जहाँ पांचवी तक पढ़ा था, पछिया और पुरवा दोनों के झोंके धनेसर को  झकजोर जाते थे. खिड़की और दरवाजे से सर्र सर्र हवा बहती थी. गुरूजी तब मास्साब नहीं बने थे, 'सर का तमगा' कब लगा इसपर अनुसन्धान होना बाकी है . बड़े अच्छे गुरूजी थे. क्या चांटे पड़ते थे सबक याद न करने पर..डर के मारे पेशाब निकल जाता था ...पर धनेसर बच जाता था सबक याद कर ... और आज के समय, उसने सुना कि पीटना तो दूर डांटना भी मुश्किल था स्कूल में ..कभी कभी वो घबरा जाता था पोते को लेकर, पता नहीं सबक याद करता भी है या नहीं. पर अंग्रेजी स्कूल में शायद ऐसा ही होता हो... 


सो खिलावनपुर के उस प्राथमिक स्कूल में एक पाठ था.. जलवायु और हम... अकेले गुरूजी सब कुछ पढ़ाते थे.. धनेसर को आज भी याद है... प्रलय आया तो दुनिया बनी ... (पुनश्च )  
      

7/09/2010

suryaast aberystwyth march

हवा बदलिए (एक)

कान पक गए हैं, अब तो ढकोसला सा लगने लगा है यह सब - climate change हो रहा है, कुछ कीजिये, वर्ना गए काम से !जैसे कोई पका आम है जो अब टपकने वाला है. जलवायु परिवर्तन - इसमें नया क्या है ? बोलचाल की भाषा में - हवा बदल रही है. अरे भाई, हवा का तो काम ही है बदलना. वायु देवता की मर्जी है, हमारी जुर्रत की हम दखल दें ...


एक जमाना था, जब हवा बदलने के लिए लोग नैनीताल, मसूरी, शिमला, कसौली, दार्जीलिंग का रूख करते थे. तीन वर्ग के लोग अक्सरहां  ऐसा कर पाते थे - बीमार, धनाढ्य और सरफिरे. उन दिनों, लाइलाज बीमारियाँ अक्सरहां जवान महिलायों (शादी की उम्र वाली लड़कियों पर गौर फरमाएं ) को पकड़ लेती थीं, और डॉक्टर की सलाह होती, किसी पहाड़ पर ले जाईये, हवा बदलने की जरूरत है! मुझे इसकी जानकारी यशपाल और सोबती से मिली. जी नहीं, वे मेरे पड़ोस में कभी नहीं रहे, पर रात के खाने के बाद हुई गुफ्तगुं में कई बार इसका जिक्र हुआ; और मै उन पन्नों पर कई बार रूका. गुलशन नंदा, रानू और प्रेम बाजपयी तो कितनो को हवा बदलने में मदद  कर चुके हैं. साठ और सत्तर के दशक में यह कितना सुलभ था. कभी कभी बॉलीवुड (मौसम याद है ना) भी इसमें मदद करता था; तब सरकारी साक्षरता का जमाना नहीं था और जरूरत  भी नहीं थी, इसलिए तीन घंटे के लिए सभी हवा बदल सकते थे ...ख्यालों में .. धनाढ्य तो गौरांग महाप्रभुओं की लीक पर चलते चलते पहाड़ की सैर कर लेते थे.. गर्मी के लिए चमड़ी पतली पड़ जाती थी, बेटियां ज्यादा नाजुक होती थीं और उम्मीद होती थी कि 'ऐसे में कहीं कोई मिल जाए'... भद्रलोक तो दार्जीलिंग में बन्दर टोपी में बंद, ठिठुरता फुचके  की तलाश में माल पर भटकता नजर आता था.. कि रोकम ठंडा...


लेखक सरफिरे होते हैं ..आजकल पता नहीं..हमारे जमाने में तो होते थे..ठन्डे की तलाश उनको भी होती थी.. बैसाख ख़तम हुआ और जेठ की दुपहरी कलम छीन लेती थी उनसे.. भैया खाना खा सकते हो.. कुल्ला  कर सकते हो.. गप्पें मार सकते हो.. वगैरह वगैरह .. पर कलम उठाने की लिए हवा बदलने की जरूरत है..धूमिल सा पहलवान तो हैं नहीं कि पछिया बर्दाश्त कर लेंगे ...तो चल दिए कलम कॉपी लेकर पहाड़ की ओर...
जी, अब ज्यादा फैला हुआ जनतंत्र है, सो सबको हवा बदलने की जरूरत है. कुछ सरकार करेगी, कुछ आप भी कीजिये...कुछ नहीं, तो हवा बदलने की जुगाली ही सही...


६५ साला धनेसर को उसका पोता बता रहा था ...climate change हो रहा है.. इसे बदलने की लिए मुझे पेंटिंग बनानी है..international पुरस्कार मिल सकता है..कुछ आईडिया दो न ग्रैंड पा... पोते ने मतलब भी समझाया, पर बालक हिंदी में थोडा तंग था..(अंग्रेजी स्कूल की नवीं कक्षा में हिंदी की जानकारी होना घोर पाप है )..धनेसर पढ़ा लिखा था, पर पुराने ज़माने का. आठवीं पास. एक भार्गव का शब्दकोष, यदा कदा, पोते की अंग्रेजी को उसकी भाषा में बदल  देता था..  थोडा थोडा समझ में आया. जलवायु और परिवर्तन. यानि कि हवा बदलना.. धनेसर थोडा उलझन में पड़ गया.. यह कौन सी नयी बात है.. भाई यह तो रीत है प्रकृति की.. चैत और बैशाख के बाद जेठ आसाढ़ की गर्मी तो पड़ेगी ही, तभी तो सावन भादो में सब हरा हरा होयेगा. फिर बाबा तुलसी तो कबके कह गए .. 'वर्षा विगत शरद ऋतू आई, फुले कास सकल माहि छाई'..आशिन-कार्तिक तो त्यौहार लाता है, फिर अगहन की रब्बी और   पूष की रात का अपना मजा है..माघ स्नान और  फागुन के चटक रंग..यही तो आनंद है जलवायु बदलने का.. कोई बीमार थोड़े ही हैं की हवा बर्दाश्त नहीं होगी. बेकार की बात है....पर पोते को टालना मुश्किल था .. इसलिए कुछ सुझाना जरूरी था.... (पुनश्च )