(आगे)
आधुनिक इंसान को अगर कोई समस्या सुलझाने के लिए कहा जाए तो वह या तो प्रतिउत्पनमतित्व का रास्ता अपनाएगा या जय हो गूगल महाराज का जय घोष कर निदान लाएगा. धनेसर पुरातन था, आजादी के पहले सांस ली, आँखें खोली और रोया भी .. आधुनिक होने की पहली शर्त है.. स्वतंत्र भूमि में जन्म लेना. पर धनेसर के बप्पा ने कुछ जल्दी कर दी क्योंकि चर्चिल के चुनाव में हारने की खबर और एटली के इरादे उन तक पहुँच नहीं पाए थे.. खैर अब गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या फायदा ..
पुरातन इंसान को समस्या सुलझाने में वक्त लगता है.. जैसे बकौल गुलेरी 'मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ़ हो जाती है..', वैसे ही यह इंसान अपने बीते दिनों की तह में जाता है, आज के सवाल का हल खोजने..
अब धनेसर को क्या मालूम कि जलवायु परिवर्तन का तूफ़ान तो खासा ताज़ा है.. हज़ारो सूरमा वैज्ञानिकों की मशक्कत और मिहनत से हम समझ पा रहे हैं कि हिमालय पिघल रहा है ..समंदर में पानी बढ़ रहा है और प्रलय आने वाला है.. वैसे ये और बात है कि दुनिया में इसकी जंग भी छिड़ी हुई है कि 'क्या ये सच है या सच का पहाड़' .. पर इतना तो सच है कि इस ताजे तूफ़ान से कई लोगों का चूल्हा जल रहा है, कई रोटियां सेक पा रहे हैं..और ब्रेकिंग न्यूज़ के रास्ते हर समय उधम मचा रहे हैं.. धनेसर इन सबसे परे अपने पोते के लिए कुछ तलाश रहा था ...
खिलावनपुर के उस प्राथमिक स्कूल में, जहाँ पांचवी तक पढ़ा था, पछिया और पुरवा दोनों के झोंके धनेसर को झकजोर जाते थे. खिड़की और दरवाजे से सर्र सर्र हवा बहती थी. गुरूजी तब मास्साब नहीं बने थे, 'सर का तमगा' कब लगा इसपर अनुसन्धान होना बाकी है . बड़े अच्छे गुरूजी थे. क्या चांटे पड़ते थे सबक याद न करने पर..डर के मारे पेशाब निकल जाता था ...पर धनेसर बच जाता था सबक याद कर ... और आज के समय, उसने सुना कि पीटना तो दूर डांटना भी मुश्किल था स्कूल में ..कभी कभी वो घबरा जाता था पोते को लेकर, पता नहीं सबक याद करता भी है या नहीं. पर अंग्रेजी स्कूल में शायद ऐसा ही होता हो...
सो खिलावनपुर के उस प्राथमिक स्कूल में एक पाठ था.. जलवायु और हम... अकेले गुरूजी सब कुछ पढ़ाते थे.. धनेसर को आज भी याद है... प्रलय आया तो दुनिया बनी ... (पुनश्च )
7/15/2010
7/09/2010
हवा बदलिए (एक)
कान पक गए हैं, अब तो ढकोसला सा लगने लगा है यह सब - climate change हो रहा है, कुछ कीजिये, वर्ना गए काम से !जैसे कोई पका आम है जो अब टपकने वाला है. जलवायु परिवर्तन - इसमें नया क्या है ? बोलचाल की भाषा में - हवा बदल रही है. अरे भाई, हवा का तो काम ही है बदलना. वायु देवता की मर्जी है, हमारी जुर्रत की हम दखल दें ...
एक जमाना था, जब हवा बदलने के लिए लोग नैनीताल, मसूरी, शिमला, कसौली, दार्जीलिंग का रूख करते थे. तीन वर्ग के लोग अक्सरहां ऐसा कर पाते थे - बीमार, धनाढ्य और सरफिरे. उन दिनों, लाइलाज बीमारियाँ अक्सरहां जवान महिलायों (शादी की उम्र वाली लड़कियों पर गौर फरमाएं ) को पकड़ लेती थीं, और डॉक्टर की सलाह होती, किसी पहाड़ पर ले जाईये, हवा बदलने की जरूरत है! मुझे इसकी जानकारी यशपाल और सोबती से मिली. जी नहीं, वे मेरे पड़ोस में कभी नहीं रहे, पर रात के खाने के बाद हुई गुफ्तगुं में कई बार इसका जिक्र हुआ; और मै उन पन्नों पर कई बार रूका. गुलशन नंदा, रानू और प्रेम बाजपयी तो कितनो को हवा बदलने में मदद कर चुके हैं. साठ और सत्तर के दशक में यह कितना सुलभ था. कभी कभी बॉलीवुड (मौसम याद है ना) भी इसमें मदद करता था; तब सरकारी साक्षरता का जमाना नहीं था और जरूरत भी नहीं थी, इसलिए तीन घंटे के लिए सभी हवा बदल सकते थे ...ख्यालों में .. धनाढ्य तो गौरांग महाप्रभुओं की लीक पर चलते चलते पहाड़ की सैर कर लेते थे.. गर्मी के लिए चमड़ी पतली पड़ जाती थी, बेटियां ज्यादा नाजुक होती थीं और उम्मीद होती थी कि 'ऐसे में कहीं कोई मिल जाए'... भद्रलोक तो दार्जीलिंग में बन्दर टोपी में बंद, ठिठुरता फुचके की तलाश में माल पर भटकता नजर आता था.. कि रोकम ठंडा...
लेखक सरफिरे होते हैं ..आजकल पता नहीं..हमारे जमाने में तो होते थे..ठन्डे की तलाश उनको भी होती थी.. बैसाख ख़तम हुआ और जेठ की दुपहरी कलम छीन लेती थी उनसे.. भैया खाना खा सकते हो.. कुल्ला कर सकते हो.. गप्पें मार सकते हो.. वगैरह वगैरह .. पर कलम उठाने की लिए हवा बदलने की जरूरत है..धूमिल सा पहलवान तो हैं नहीं कि पछिया बर्दाश्त कर लेंगे ...तो चल दिए कलम कॉपी लेकर पहाड़ की ओर...
जी, अब ज्यादा फैला हुआ जनतंत्र है, सो सबको हवा बदलने की जरूरत है. कुछ सरकार करेगी, कुछ आप भी कीजिये...कुछ नहीं, तो हवा बदलने की जुगाली ही सही...
६५ साला धनेसर को उसका पोता बता रहा था ...climate change हो रहा है.. इसे बदलने की लिए मुझे पेंटिंग बनानी है..international पुरस्कार मिल सकता है..कुछ आईडिया दो न ग्रैंड पा... पोते ने मतलब भी समझाया, पर बालक हिंदी में थोडा तंग था..(अंग्रेजी स्कूल की नवीं कक्षा में हिंदी की जानकारी होना घोर पाप है )..धनेसर पढ़ा लिखा था, पर पुराने ज़माने का. आठवीं पास. एक भार्गव का शब्दकोष, यदा कदा, पोते की अंग्रेजी को उसकी भाषा में बदल देता था.. थोडा थोडा समझ में आया. जलवायु और परिवर्तन. यानि कि हवा बदलना.. धनेसर थोडा उलझन में पड़ गया.. यह कौन सी नयी बात है.. भाई यह तो रीत है प्रकृति की.. चैत और बैशाख के बाद जेठ आसाढ़ की गर्मी तो पड़ेगी ही, तभी तो सावन भादो में सब हरा हरा होयेगा. फिर बाबा तुलसी तो कबके कह गए .. 'वर्षा विगत शरद ऋतू आई, फुले कास सकल माहि छाई'..आशिन-कार्तिक तो त्यौहार लाता है, फिर अगहन की रब्बी और पूष की रात का अपना मजा है..माघ स्नान और फागुन के चटक रंग..यही तो आनंद है जलवायु बदलने का.. कोई बीमार थोड़े ही हैं की हवा बर्दाश्त नहीं होगी. बेकार की बात है....पर पोते को टालना मुश्किल था .. इसलिए कुछ सुझाना जरूरी था.... (पुनश्च )
एक जमाना था, जब हवा बदलने के लिए लोग नैनीताल, मसूरी, शिमला, कसौली, दार्जीलिंग का रूख करते थे. तीन वर्ग के लोग अक्सरहां ऐसा कर पाते थे - बीमार, धनाढ्य और सरफिरे. उन दिनों, लाइलाज बीमारियाँ अक्सरहां जवान महिलायों (शादी की उम्र वाली लड़कियों पर गौर फरमाएं ) को पकड़ लेती थीं, और डॉक्टर की सलाह होती, किसी पहाड़ पर ले जाईये, हवा बदलने की जरूरत है! मुझे इसकी जानकारी यशपाल और सोबती से मिली. जी नहीं, वे मेरे पड़ोस में कभी नहीं रहे, पर रात के खाने के बाद हुई गुफ्तगुं में कई बार इसका जिक्र हुआ; और मै उन पन्नों पर कई बार रूका. गुलशन नंदा, रानू और प्रेम बाजपयी तो कितनो को हवा बदलने में मदद कर चुके हैं. साठ और सत्तर के दशक में यह कितना सुलभ था. कभी कभी बॉलीवुड (मौसम याद है ना) भी इसमें मदद करता था; तब सरकारी साक्षरता का जमाना नहीं था और जरूरत भी नहीं थी, इसलिए तीन घंटे के लिए सभी हवा बदल सकते थे ...ख्यालों में .. धनाढ्य तो गौरांग महाप्रभुओं की लीक पर चलते चलते पहाड़ की सैर कर लेते थे.. गर्मी के लिए चमड़ी पतली पड़ जाती थी, बेटियां ज्यादा नाजुक होती थीं और उम्मीद होती थी कि 'ऐसे में कहीं कोई मिल जाए'... भद्रलोक तो दार्जीलिंग में बन्दर टोपी में बंद, ठिठुरता फुचके की तलाश में माल पर भटकता नजर आता था.. कि रोकम ठंडा...
लेखक सरफिरे होते हैं ..आजकल पता नहीं..हमारे जमाने में तो होते थे..ठन्डे की तलाश उनको भी होती थी.. बैसाख ख़तम हुआ और जेठ की दुपहरी कलम छीन लेती थी उनसे.. भैया खाना खा सकते हो.. कुल्ला कर सकते हो.. गप्पें मार सकते हो.. वगैरह वगैरह .. पर कलम उठाने की लिए हवा बदलने की जरूरत है..धूमिल सा पहलवान तो हैं नहीं कि पछिया बर्दाश्त कर लेंगे ...तो चल दिए कलम कॉपी लेकर पहाड़ की ओर...
जी, अब ज्यादा फैला हुआ जनतंत्र है, सो सबको हवा बदलने की जरूरत है. कुछ सरकार करेगी, कुछ आप भी कीजिये...कुछ नहीं, तो हवा बदलने की जुगाली ही सही...
६५ साला धनेसर को उसका पोता बता रहा था ...climate change हो रहा है.. इसे बदलने की लिए मुझे पेंटिंग बनानी है..international पुरस्कार मिल सकता है..कुछ आईडिया दो न ग्रैंड पा... पोते ने मतलब भी समझाया, पर बालक हिंदी में थोडा तंग था..(अंग्रेजी स्कूल की नवीं कक्षा में हिंदी की जानकारी होना घोर पाप है )..धनेसर पढ़ा लिखा था, पर पुराने ज़माने का. आठवीं पास. एक भार्गव का शब्दकोष, यदा कदा, पोते की अंग्रेजी को उसकी भाषा में बदल देता था.. थोडा थोडा समझ में आया. जलवायु और परिवर्तन. यानि कि हवा बदलना.. धनेसर थोडा उलझन में पड़ गया.. यह कौन सी नयी बात है.. भाई यह तो रीत है प्रकृति की.. चैत और बैशाख के बाद जेठ आसाढ़ की गर्मी तो पड़ेगी ही, तभी तो सावन भादो में सब हरा हरा होयेगा. फिर बाबा तुलसी तो कबके कह गए .. 'वर्षा विगत शरद ऋतू आई, फुले कास सकल माहि छाई'..आशिन-कार्तिक तो त्यौहार लाता है, फिर अगहन की रब्बी और पूष की रात का अपना मजा है..माघ स्नान और फागुन के चटक रंग..यही तो आनंद है जलवायु बदलने का.. कोई बीमार थोड़े ही हैं की हवा बर्दाश्त नहीं होगी. बेकार की बात है....पर पोते को टालना मुश्किल था .. इसलिए कुछ सुझाना जरूरी था.... (पुनश्च )
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