9/13/2014

Guruji Kahan hain

Guruji, Kahan Hain

It has been fifteen years since he took a class in his subject. No, he did not bunk it. In 1998, as block education officer he chose to become a manager as envisaged in the evolving institutional architecture. From a routine school work, he shifted focus on collecting information, disseminating instructions, organizing training, and planning the education development of the block! Sounds interesting!  Alas, the change in course curriculum in 2005-06 has not concerned him as he is very much comfortable in this role that offers freedom in mobility, safety from classroom teaching, and closeness to politics (of running the system).  He is gradually becoming a role model for good number of teachers to bunk the school and become the manager.
Teaching is a noble profession, but it is demanding and accountable as (s)he must face the students. There is no escape route. A teacher in India don’s many hats: besides teaching he conducts all elections (local bodies, parliament and assembly); census, surveys the socio-economic conditions; protocol, and so on. While selecting a teacher, the recruitment agency does not even provide a hint of the tasks awaiting in the field. Within the education sector, the activities have increased manifold because of at least three reasons: first, the expansion of centrally guided school education; second, the change in the orientation of the welfare state; and third, the aspirations of the population. It has led to transfer of resources of various forms at the level of school. This decentralization has not been matched by the evolving democratic institutions which, along with the perceived mistrust in the chain of command, have necessitated the emergence of education managers in large numbers- block education officers, SSA coordinator, RMSA coordinator and so on. There has not been well thought out strategies to man these challenging posts- no expertise.
 Inspection of schools is a specialised job and certainly it is not identical to teaching in a class. This managerial aspect, unfortunately, has not evolved beyond some stereotype training. Poor supervision, monitoring, and intervention are quite evident in the dismal performance of the schools.  Allowing a teacher to get into the shoes of manager without structural improvement in the capacity building of eligible teachers is neither fair for the system nor it does justice to the teacher him(her)self.  Ironically the continuance of current arrangement causes more harm to the dire need of availability of teachers in the school first. Innovative ways of handling the activities of inspection, training, planning must evolve. Use of Information Technology can work as effective tool, but the constraints may not help in connecting the last mile. Alternative approach can be to engage the Deputy Commissioners, who must take the mantle of continuous monitoring of education in the district in structured manner. Goals must be set. Follow up act is often the most difficult task because of poor record management.

Education sector must work to create a system of capable education managers. Their roles are to work as positive facilitators and to act as bridge between the school and the system for better outcome. Sooner it happens better for the education and the teacher!   
(it was published on 5/9/2014 in Arunachal Front newspaper)

5/22/2011

विडम्बना

मुझे तलाश है, उन चौबीस घंटों की, जो सिर्फ मेरे हों.
मै ही निर्धारित करूँ,
कि ब्राम्ह मुहूर्त में कौन सा स्वप्न मुझे दिखे; 
कि किस पक्षी का कलरव मेरे कर्ण को स्पर्श करे;
कि  भास्कर की कौन सी रश्मि मेरे चक्षु युगल को चूमे;
कि कौन सी बांह को अपने मस्तक के ऊपर ले जाते हुए मै एक लम्बी जम्हाई लूं, और
धीरे -धीरे कौन-सी पलक उठाकर इस  उजियारी दुनिया का नया रूप देखूं ;

कि किस करवट अपने घुटनों को मरोड़ते हुए  बिस्तर छोडूँ;
कि दीवार के किस हिस्से में आज एक खिड़की खुले, और
कौन सा पुष्प अपनी सुगंध से मेरे दिलो दिमाग को  सुबासित कर जाए;
कि आज के अखबार में कौन सी खबर पढने के लिए छपे;
कि आज के दिन हर पडोसी बगैर किसी द्वेष और ईर्ष्या के कंपनी बाग़ में सेहत बनाते मिले; 
कि नाश्ते में क्या हो, और उसे ख़त्म करने की रफ़्तार मेरी हो;

कि आज के दिन जब घर से काम पर निकलूँ, तो कोई बच्चा सड़क या दूकान पर ना मिले;
कि कोई किसी मेहनतकश से बदतमीजी ना करे;
 कि किसी भी नुक्कड़ पर कोई भीख ना मांगे; 
कि किसी पैदल राही को सड़क को पहला हक़ मिले; 
कि रास्ते में आने वाले हर हस्पताल में कोई-भी  मरीज जिंदगी की जद्दोजहद का ना मिले;
कि हर सरकारी कार्यालय में कहीं कोई कतार ना बने;

कि शाम को घर लौटते हुए ना कोई शिकन हो ना थकान; 
कि चौखट के भीतर घर के बुजुर्गों से घुलने-मिलने का दौर रहे, और  
तीनों पीढियां बेझिझक, निशंक, सौहार्द भाव से हिले-मिले;
कि बगैर किसी दुस्वप्न के इन सुहाने चौबीस घंटों की एक खुशनुमा चलचित्र  रात की नींद को हल्कि हल्कि थपकी दे जाए.......

विडम्बना देखिये कि साल का हर दिन तो पहले से ही सुपुर्द है, किसी खासमखास शख्सियत के लिए या किसी मकसद के लिए;और
जबतक ऐसा है, वह खुशनुमा चलचित्र एक गुमशुदा ख्वाब है, जिसकी तलाश जारी रहेगी...
इस दिन से उस दिन तक, और इस जन्म से पुनर्जन्म तक...

1/03/2011

मिटटी की खुशबू

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की कई महत्वपूर्ण कविताओं में से एक का रसास्वादन आपने पिछले सन्देश में किया होगा. प्रकृति के इन रंगों को शब्दों में पिरोना आज भी प्रासंगिक है. इन खूबियों को जानने के लिए मातृभाषा में गढ़े साहित्य को पढ़ना जरूरी है. डैफोडिल को पढ़ना और भारत के सन्दर्भ में बूझना दो अलग-अलग  बाते हैं. जब तक संयुक्त साम्राज्य (UK ) जाकर डैफोडिल को देखा नहीं, उस पढ़े हुए को असलियत से जोड़ना असंभव था. जानकारी बढ़ाने से कोई परहेज नहीं होना चाहिए. दिन दुनिया की समझ इससे आती है; पर इस क्रम में अपनी मिटटी की खुशबू को भूलना न माफ़ किये जानेवाली गलती है. भारतेंदु की १९ वीं सदी की यह प्रसिद्द कविता सिर्फ आज़ादी के लिए नहीं, बल्कि अपनी विरासत  को संभालने के लिए प्रासंगिक है. 

मातृ-भाषा के प्रति
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
अंग्रेज़ी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।
पै निज भाषाज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।

उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय।
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।।
निज भाषा उन्नति बिना, कबहुँ न ह्यैहैं सोय।
लाख उपाय अनेक यों भले करो किन कोय।।

इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग।
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।।
और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात।
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।।

तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय।
यह गुन भाषा और महं, कबहूँ नाहीं होय।।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।

भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात।
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।।
सब मिल तासों छाँड़ि कै, दूजे और उपाय।
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।।

1/02/2011

हरिऔध

हरिऔध का नाम शायद पुरानी कविताओं के कुछ पन्नों तक सिमट कर रह गया है. हिंदी की यही नियति है, कि इन जैसे तमाम रचनाकारों को विस्मृत कर दें. मुझे नहीं लगता कि हम हिंदी के इन पुरोधाओं को याद भी रख पा रहे हैं. मेरी पीढ़ी तक तो विविध भारती के 'भूले-बिसरे गीत' कार्यक्रम की तरह गाहे-बगाहे इनकी याद आ जाती है, पर आंग्ल भाषा के प्रभाव में बहती नयी पौध के लिए तो अब ये क्विज़ के सवाल भी नहीं हैं. इस छूटती विरासत पर बात करना क्या जरूरी है? मुझे लगता है, यह जरूरी ही नहीं अपितु  अनिवार्य है. 
सबसे पहले यह जानने की कोशिश करते हैं कि इस विरासत का रहना क्यों अनिवार्य है. (१) विरासत एक समुदाय की पहचान होती है. यह कई सभ्यताओं से तराशे जाने के पश्चात् संस्कृति का अविभाज्य अंग बन जाती है. 
(२) विरासत हमारी बौद्धिक क्षमता को भी इंगित करता है. भारतीय कला के प्राचीन अवशेष तत्कालीन उच्च ज्ञान को भी दर्शाता है. 
(३) विरासत लोक ज्ञान की संरक्षक है. यह ज्ञान सदियों से आम जन के अथक प्रयासों का प्रतिफलन है. परंपरागत बुद्धि की खूबियों को ढूँढने की कोशिश में आज का विज्ञान निरंतर चेष्टा कर रहा है. इन खूबियों में उसे भविष्य के विनाश से बचने का रास्ता नजर आ रहा है. 
(४) विरासत आपको वर्तमान की कमजोरियों को दूर करने का मार्ग दिखाता है.
(५) विरासत आपका आत्मविश्वास बढ़ाता है.
(६) विरासत आज के भौतिक वादी दौर में राजस्व अर्जन का प्रचलित जरिया है. 
किसी भी विकसित देश में आप चले जाएँ, विरासत तैयार करने की या उसे भुनाने की होड़ लगी हुई है. इन प्रयत्नों का फायदा वहां की प्रगति में स्पष्ट दीखता है. 
भाषा इस विरासत का सबसे महत्वपूर्ण तत्त्व है. फ्रेंच, जापानी, स्पेनिश, इतालवी, इन सब भाषाओँ को संजोने के प्रयाश तो जग जाहिर हैं. आजकल मैं wales में रहता हूँ, जो बाहर की दुनिया के लिए ब्रिटिश सरकार का हिस्सा है. पर वास्तव में अंग्रेजी यहाँ की मातृभाषा नहीं है. आप cardiff से bangor तक चले जाएँ, अंग्रेजी का दर्ज़ा दूसरा है; वेल्स भाषा को प्रथम स्थान हर जगह पर प्राप्त है. इस भाषा में लिखे साहित्य का संरक्षण और प्रसार वेल्स प्रदेश का एक मुख्य धेय है. 
भाषा सिर्फ बोलचाल का जरिया ही नहीं है, अपितु यह पूरी जीवन शैली है. हमारी विडम्बना है कि पहले हम लोकल से ग्लोबल की ओर जाते हैं फिर ग्लोबल से लोकल की ओर वापस लौटने की कोशिश करते हैं. खतरा इस बात का है कि इस आपाधापी में मातृभाषा अक्सरहां विलुप्त होने लगती है. हिंदी इसी खतरे का शिकार है. लगभग ४२ करोड़ लोगों की यह भाषा मातृभाषा का दर्ज़ा खोने लगी है. जो लोग हिंदी सिनेमा की दुहाई देते नहीं थकते, वही हिंदी साहित्य से अपना मुख मोड़े बैठे हैं. यह आश्चर्य का विषय है कि कामायनी, गोदान या राग दरबारी के पाठक अपने देश में लाख की संख्या में सिमट कर रह गए हैं. किसी नयी रचना की बिक्री हज़ार में हो, तो प्रकाशक धन्य हो जाता है! हिंदी साहित्य पढ़ने वाले विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग तक सीमित होकर रह गए हैं. आधुनिक शिक्षा की इस दुनिया में हिंदी पढ़ना धीरे धीरे इस तरह गायब हो रहा है जैसे गधे के सर से सींग! अस्सी के दशक तक तो शायद गुलशन नंदा, प्रेम वाजपयी,रानू की रचनाओं को घर में सहज प्रवेश मिलता रहा; हिंद पॉकेट बुक्स के सुलभ साहित्य थोड़ी थोड़ी याद दिलाते रहे हिंदी के गद्य को. उदारीकरण की आंधी में पिछले दो दशक में बहुत कुछ बदला है. हर तरफ प्रगति के बिम्ब बिखरे नज़र आते हैं. इन बिम्बों में हिंदी का दर्शन दुर्लभ होता जा रहा है, साहित्य तो लगभग हाशिये पर पहुँच चुका है. 
ऐसे दौर में हरिऔध को याद करना अतीत को जीने जैसा है, पर इनकी रचनाओं को पढ़ना हमेशा से प्रासंगिक रहा है और रहेगा भी, उसी तरह जैसे सुबह का होना, शाम का आना और उसके इर्द-गिर्द जीवन चक्र का निरंतर चलते जाना... एक बानगी खुद देखिये...
    संध्या (प्रिय प्रवास से)
दिवस का अवसान समीप था
गगन था कुछ लोहित हो चला
तरु शिखा पर थी अब राजती
कमलिनी कुल वल्लभ की प्रभा

विपिन बीच विहंगम वृंद का
कल निनाद विवर्धित था हुआ
ध्वनिमयी विविधा विहगावली
उड़ रही नभ मंडल मध्य थी

अधिक और हुई नभ लालिमा
दश दिशा अनुरंजित हो गयी
सकल पादप पुंज हरीतिमा
अरुणिमा विनिमज्जित सी हुई

झलकते पुलिनो पर भी लगी
गगन के तल की वह लालिमा
सरित और सर के जल में पड़ी
अरुणता अति ही रमणीय थी।।

अचल के शिखरों पर जा चढ़ी
किरण पादप शीश विहारिणी
तरणि बिंब तिरोहित हो चला
गगन मंडल मध्य शनै: शनै:।।

ध्वनिमयी करके गिरि कंदरा
कलित कानन केलि निकुंज को
मुरलि एक बजी इस काल ही
तरणिजा तट राजित कुंज में।।

12/16/2010

गुरुदत्त

गुरुदत्त उर्फ़ बसंत कुमार पदुकोने हिंदी सिनेमा के लिए एक पहेली की तरह हैं. उनकी तीन फ़िल्में - प्यासा (१९५७), कागज़ के फूल (१९५९), और साहब बीबी और गुलाम (१९६२)- हमेशा से सिनेप्रेमियों के लिए तीर्थ की तरह हैं. इन श्वेत-श्याम फिल्मों ने भारतीय सिनेमा को वैश्विक पहचान दी है. समय गुजरने के साथ ये और बेहतरीन दिखती हैं. कहानी, पटकथा, गीत-संगीत, अदाकारी, निर्देशन  की बारीकियां, छायांकन, प्रकाश और अन्धकार का संयोजन, और सामाजिक सरोकार, सभी ने इन फिल्मों को classic बनाया है.
पहली दो फिल्मों का निर्देशन गुरुदत्त ने किया और तीसरी का अबरार अल्वी ने.'प्यासा' एवं  'साहब बीबी और गुलाम' को दर्शकों ने काफी सराहा, पर 'कागज़ के फूल' नकार दी गयी. 
'प्यासा' की कहानी चंद्रशेखर प्रेम के उपन्यास पर आधारित है; पर इसकी पटकथा को सशक्त बनाया अबरार की कलम ने. मौकापरस्त ज़माने में कवि की कशमकश और समाज के अनजान, पर रोजमर्रा के चरित्रों का बड़प्पन, इन सबके इर्द-गिर्द घुमती है कहानी. साहिर के गीतों की तल्खियाँ आज इस फिल्म की पहचान सी बन चुकी हैं. 
'कागज़ के फूल' को 'सिटिज़न केन' (१९४१) सी कलात्मक उत्कृष्टता का दर्ज़ा उपलब्ध है. फिल्म के कई दृश्य आज सिनेमा की प्रमुख किताबों (जैसे ऑक्सफोर्ड बुक ऑफ़ सिनेमा) में दर्ज हैं.  कैफ़ी की 'देखी ज़माने की यारी' पूरे समय कहानी में गूंजती रहती है. दोनों फिल्मों में तत्कालीन समाज के दोगलेपन का अंकन  है तो, इन दोनों से दीगर 'साहब, बीबी और गुलाम' सामंती युग के ढहते चरित्र को उकेरता है. यह फिल्म प्रसिद्द उपन्यासकार बिमल मित्र के प्रसिद्द उपन्यास पर आधारित है. 

अगर मैं इन तीनों फिल्मों की खूबियाँ ढूंढूं तो  वो कुछ इस तरह दीखती हैं :
१. साहिर, कैफ़ी और शकील के बेहतरीन गीत 
२. बर्मन दादा और हेमंत कुमार का खूबसूरत संगीत 
३. मूर्ती की लाजवाब सिनेमाटोग्राफी 
४. मीना कुमारी की लरजती आवाज़ 
५. 'साकिया आज मुझे नींद नहीं आएगी' का फिल्मांकन
६. 'जिन्हें नाज़ है हिंद पर'
७. गीता दत्त का दिल को छूनेवाला स्वर    
८. रहमान की  उत्कृष्ट अदाकारी ........... 








     

12/12/2010

वसंत कुमार

३९ वर्ष की जिंदगी वसंत  कुमार  शिवशंकर  पादुकोन ने  इस धरा पर बितायी.१० अक्टूबर १९६४ उसने अपने आप को मुक्त कर दिया. क्यों ? आज भी रहस्य की परतों में छुपा है यह.

इस वसंत कुमार ने लगभग दो दशक हिंदी सिनेमा को दिया. आज ४६ वर्ष के बाद भी ये प्रासंगिक हैं. अमिताभ उनकी एक फिल्म बीस से ज्यादा बार देखने का दावा करते हैं! times की १०० बेहतरीन फिल्मों की लिस्ट में उनकी दो फिल्मों को चुना गया. फिल्मों का हर जानकार उनके कलात्मक निर्देशन की दाद देता है. हर नया निर्देशक उनकी फिल्मों को देखना चाहता है, समझना चाहता है. 

इस बेहतरीन फनकार ने choreographi से अपनी फ़िल्मी जीवन की शुरुआत की, फिर सहायक निर्देशन और अंत में १९५१ में पहला निर्देशन. इसके बाद अगले पांच सालों तक कई सफल फिल्मे दर्शकों तक पहुंची.
साल १९५७. हिंदी सिनेमा के लिए अविस्मर्णीय. शांताराम की 'दो आँखें बारह हाथ', महबूब की 'मदर इण्डिया', बी. र. चोपड़ा की 'नया दौर' दर्शकों और समीक्षकों ने खूब सराही. तीन बेहतरीन निर्देशकों- हृषिकेश (मुसाफिर), नासिर हुसैन (तुमसा नहीं देखा) और विजय आनंद(नौ दो ग्यारह) - ने इस वर्ष पहली बार अपनी फ़िल्में पेश की. 

इतने कलात्मक वर्ष में वसंत कुमार की नयी फिल्म ने एक ऐसी मिसाल रखी, जो आज भी प्रासंगिक है. इस फिल्म के गीतों  का दायरा बंगाल के बॉल संगीत से शुरू होकर खालिस उर्दू शायरी तक जा पहुंचता है. साहिर की उम्दा शायरी और बर्मन दादा की  जमीनी मौशिकी. कहानी का श्रेय अबरार अल्वी को दिया जाता है, जिन्होंने १९६२ में इन्ही वसंत कुमार की एक फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशन का filmfare पुरस्कार  जीता. 

अब तो आप जान चुके होंगे कि मै किनकी बात कर रहा हूँ!!!     (जारी)    

12/11/2010

तू जिंदा है ...

शैलेन्द्र के गीत सीधे, सरल और सपाट से लगते हैं. न घुमाव है न ही उलझाव. आम हों या खास, आप सबके लिए सुलभ हैं ये गीत. मुझे प्रेमचंद सी सच्चाई दिखती है शैलेन्द्र के गीतों में. प्रेमचंद प्राथमिक कक्षा के बच्चे भी पढ़ते है और स्नातकोत्तर के छात्र भी.

शैलेन्द्र के गीतों का दायरा काफी फैला हुआ है. मौसम, रिश्ते-नाते, जीवन मूल्यों पर लिखे ये गीत सदाबहार हैं. इस सन्देश में मैं उनके फ़िल्मी गीतों का जिक्र नहीं करूंगा. वो फिर कभी!

यहाँ प्रस्तुत है शैलेन्द्र की एक बेजोड़ कृति जिसमे मुर्दों को जगाने की ताकत है. आज़ादी के दौर में लिखी यह रचना पहली बार शायद तीसरी कक्षा में सुनी थी. जोशीली रचनाएं कई सुनी हैं. पर इसकी बात ही कुछ और है. आपकी सहमति पढने के पश्चात् पूछूँगा.

"तू जिंदा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर. तू जिंदा है ....

ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन,
ये दिन भी जायेंगे गुज़र, गुज़र गए हज़ार दिन.
कभी तो होगी इस चमन पे भी बहार की नज़र,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर. तू जिंदा है... 

हमारे कारवां को मंजिलों का इंतज़ार है,
ये आँधियों, ये बिजलियों की पीठ पर सवार है.
तू आ कदम मिला के चल, चलेंगे एक साथ हम,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर. तू जिंदा है ...

ज़मीं के पेट में पली अगन, पले हैं ज़लज़ले,
टिके न टिक सकेंगे भूख रोग के स्वराज ये,
मुसीबतों के सर कुचल चलेंगे एक साथ हम,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर. तू जिंदा है...
 
बुरी है आग पेट की, बुरे हैं दिल के दाग ये,
न दब सकेंगे, एक दिन बनेंगे इन्कलाब ये,
गिरेंगे ज़ुल्म के महल, बनेंगे फिर नवीन घर,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर. तू जिंदा है...  "

(धन्यवाद उनका जिन्होंने इसे वेब पर उपलब्ध करवाया है)