12/12/2010

वसंत कुमार

३९ वर्ष की जिंदगी वसंत  कुमार  शिवशंकर  पादुकोन ने  इस धरा पर बितायी.१० अक्टूबर १९६४ उसने अपने आप को मुक्त कर दिया. क्यों ? आज भी रहस्य की परतों में छुपा है यह.

इस वसंत कुमार ने लगभग दो दशक हिंदी सिनेमा को दिया. आज ४६ वर्ष के बाद भी ये प्रासंगिक हैं. अमिताभ उनकी एक फिल्म बीस से ज्यादा बार देखने का दावा करते हैं! times की १०० बेहतरीन फिल्मों की लिस्ट में उनकी दो फिल्मों को चुना गया. फिल्मों का हर जानकार उनके कलात्मक निर्देशन की दाद देता है. हर नया निर्देशक उनकी फिल्मों को देखना चाहता है, समझना चाहता है. 

इस बेहतरीन फनकार ने choreographi से अपनी फ़िल्मी जीवन की शुरुआत की, फिर सहायक निर्देशन और अंत में १९५१ में पहला निर्देशन. इसके बाद अगले पांच सालों तक कई सफल फिल्मे दर्शकों तक पहुंची.
साल १९५७. हिंदी सिनेमा के लिए अविस्मर्णीय. शांताराम की 'दो आँखें बारह हाथ', महबूब की 'मदर इण्डिया', बी. र. चोपड़ा की 'नया दौर' दर्शकों और समीक्षकों ने खूब सराही. तीन बेहतरीन निर्देशकों- हृषिकेश (मुसाफिर), नासिर हुसैन (तुमसा नहीं देखा) और विजय आनंद(नौ दो ग्यारह) - ने इस वर्ष पहली बार अपनी फ़िल्में पेश की. 

इतने कलात्मक वर्ष में वसंत कुमार की नयी फिल्म ने एक ऐसी मिसाल रखी, जो आज भी प्रासंगिक है. इस फिल्म के गीतों  का दायरा बंगाल के बॉल संगीत से शुरू होकर खालिस उर्दू शायरी तक जा पहुंचता है. साहिर की उम्दा शायरी और बर्मन दादा की  जमीनी मौशिकी. कहानी का श्रेय अबरार अल्वी को दिया जाता है, जिन्होंने १९६२ में इन्ही वसंत कुमार की एक फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशन का filmfare पुरस्कार  जीता. 

अब तो आप जान चुके होंगे कि मै किनकी बात कर रहा हूँ!!!     (जारी)    

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