12/11/2010

तू जिंदा है ...

शैलेन्द्र के गीत सीधे, सरल और सपाट से लगते हैं. न घुमाव है न ही उलझाव. आम हों या खास, आप सबके लिए सुलभ हैं ये गीत. मुझे प्रेमचंद सी सच्चाई दिखती है शैलेन्द्र के गीतों में. प्रेमचंद प्राथमिक कक्षा के बच्चे भी पढ़ते है और स्नातकोत्तर के छात्र भी.

शैलेन्द्र के गीतों का दायरा काफी फैला हुआ है. मौसम, रिश्ते-नाते, जीवन मूल्यों पर लिखे ये गीत सदाबहार हैं. इस सन्देश में मैं उनके फ़िल्मी गीतों का जिक्र नहीं करूंगा. वो फिर कभी!

यहाँ प्रस्तुत है शैलेन्द्र की एक बेजोड़ कृति जिसमे मुर्दों को जगाने की ताकत है. आज़ादी के दौर में लिखी यह रचना पहली बार शायद तीसरी कक्षा में सुनी थी. जोशीली रचनाएं कई सुनी हैं. पर इसकी बात ही कुछ और है. आपकी सहमति पढने के पश्चात् पूछूँगा.

"तू जिंदा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर. तू जिंदा है ....

ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन,
ये दिन भी जायेंगे गुज़र, गुज़र गए हज़ार दिन.
कभी तो होगी इस चमन पे भी बहार की नज़र,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर. तू जिंदा है... 

हमारे कारवां को मंजिलों का इंतज़ार है,
ये आँधियों, ये बिजलियों की पीठ पर सवार है.
तू आ कदम मिला के चल, चलेंगे एक साथ हम,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर. तू जिंदा है ...

ज़मीं के पेट में पली अगन, पले हैं ज़लज़ले,
टिके न टिक सकेंगे भूख रोग के स्वराज ये,
मुसीबतों के सर कुचल चलेंगे एक साथ हम,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर. तू जिंदा है...
 
बुरी है आग पेट की, बुरे हैं दिल के दाग ये,
न दब सकेंगे, एक दिन बनेंगे इन्कलाब ये,
गिरेंगे ज़ुल्म के महल, बनेंगे फिर नवीन घर,
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर. तू जिंदा है...  "

(धन्यवाद उनका जिन्होंने इसे वेब पर उपलब्ध करवाया है)

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