11/28/2010

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग


  
 फैज़ (१९११-१९८४) की शायरी एक अहसास है जो जिंदगी की जदोजहद से आपको जोडती है. अफ़सोस इनके नगमों की चर्चा भूली बिसरी बात होती जा रही है. जरूरी है कि ये खूबसूरत और दिलों-दिमाग को झकझोरने वाले नगमे हमेशा हमारी दिनचर्या में मौजूद रहें. कई बेहतरीन नगमों में से एक 'मुझसे पहली सी' पेश है. धन्यवाद उनका जिन्होंने इसे साइबर दुनिया में उपलब्ध कराया है.


 मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग
        मैने समझा था कि तू है तो दरख़्शां1 है हयात2
       तेरा ग़म है तो ग़मे-दहर3 का झगड़ा क्या है
       तेरी सूरत से है आलम4 में बहारों को सबात5
       तेरी आँखों के सिवा दुनिया मे रक्खा क्या है
       तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ6 हो जाये
       यूँ न था, मैने फ़क़त7 चाहा था यूँ हो जाये

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा

राहतें8 और भी हैं वस्ल9 की राहत के सिवा
         अनगिनत सदियों से तरीक़ बहीमाना तिलिस्म10
         रेशमो-अतलसो-किमख़्वाब में बुनवाये हुए11
         जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ए-बाज़ार में जिस्म
         ख़ाक में लिथड़े हुए, ख़ून मे नहलाये हुए
         जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों12 से
         पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों13 से

        
        लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
        अब भी दिलकश14 है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे
       और भी दुख हैं ज़माने मे मोहब्बत के सिवा
       राहतें और भी हैं वस्ल15 की राहत के सिवा
 मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग
  1.  प्रकाशमान
  2.  जीवन
  3.  सांसारिक चिंताएँ
  4.  दुनिया
  5.  स्थायित्व
  6.  तक़दीर सिर झुका ले
  7.  केवल
  8.  सुख
  9.  मिलन
  10.  प्राचीन अज्ञानपूर्ण अंधविश्वास रूपी तिलिस्म
  11.  एक प्रकार के कीमती वस्त्र
  12.  शरीर रूपी तंदूर से रोग के कारण निकले हुए
  13.  घाव
  14.  आकर्षक
  15.  मिलन

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