11/24/2010

जाड़े की धूप

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना हिंदी साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर रहे हैं. 
मौसम हमारी जीवन संस्कृति से किस कदर जुड़ा है, इसकी एक बानगी सर्वेश्वर 
की इस सरल कविता में झांकें:
  
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया

ताते जल नहा पहन श्वेत वसन आयी
खुले लान बैठ गयी दमकती लुनायी
सूरज खरगोश धवल गोद उछल आया।
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।

नभ के उद्यान-छत्र तले मेज : टीला,
पड़ा हरा फूल कढ़ा मेजपोश पीला,
वृक्ष खुली पुस्तक हर पृष्ठ फड़फड़ाया।
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।

पैरों में मखमल की जूती-सी-क्यारी,
मेघ ऊन का गोला बुनती सुकुमारी,
डोलती सलाई हिलता जल लहराया।
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।

बोली कुछ नहीं, एक कुर्सी की खाली,
हाथ बढ़ा छज्जे की साया सरकाली,
बाँह छुड़ा भागा, गिर बर्फ हुई छाया।
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।
                           - सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

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