1/03/2011

मिटटी की खुशबू

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की कई महत्वपूर्ण कविताओं में से एक का रसास्वादन आपने पिछले सन्देश में किया होगा. प्रकृति के इन रंगों को शब्दों में पिरोना आज भी प्रासंगिक है. इन खूबियों को जानने के लिए मातृभाषा में गढ़े साहित्य को पढ़ना जरूरी है. डैफोडिल को पढ़ना और भारत के सन्दर्भ में बूझना दो अलग-अलग  बाते हैं. जब तक संयुक्त साम्राज्य (UK ) जाकर डैफोडिल को देखा नहीं, उस पढ़े हुए को असलियत से जोड़ना असंभव था. जानकारी बढ़ाने से कोई परहेज नहीं होना चाहिए. दिन दुनिया की समझ इससे आती है; पर इस क्रम में अपनी मिटटी की खुशबू को भूलना न माफ़ किये जानेवाली गलती है. भारतेंदु की १९ वीं सदी की यह प्रसिद्द कविता सिर्फ आज़ादी के लिए नहीं, बल्कि अपनी विरासत  को संभालने के लिए प्रासंगिक है. 

मातृ-भाषा के प्रति
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
अंग्रेज़ी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।
पै निज भाषाज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।

उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय।
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।।
निज भाषा उन्नति बिना, कबहुँ न ह्यैहैं सोय।
लाख उपाय अनेक यों भले करो किन कोय।।

इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग।
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।।
और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात।
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।।

तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय।
यह गुन भाषा और महं, कबहूँ नाहीं होय।।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।

भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात।
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।।
सब मिल तासों छाँड़ि कै, दूजे और उपाय।
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।।

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