एक और गणतंत्र आ गया; गण का तंत्र!
अख़बार की कतरनें और दूरदर्शन की नौजवान वाचिकाएं चीखती और चिल्लाती हैं, हर रोज -- किस गण के लिए है तंत्र! सब कुछ ग़लत है, सभी बेईमान हैं, कोई भविष्य नहीं है, आम आदमी (जैसे कि ये जानते हैं कि आम का मतलब क्या है?) पीड़ित है, सरकारी अफसर निकम्मे और स्वार्थी हैं --अजीब सी कोसने कि होड़ लगी है!
मै मूक दर्शक और पाठक बना हर रोज यह कड़वा घूँट निगलने की कोशिश करता हूँ; यह सोचकर की आज कुछ ऐसा करुँ जिससे कोई तो कहे--यह तेरा, मेरा, सबका बनाया हुआ तंत्र है। हर सुबह थोडी-सी खुशी लेकर लोगों में बांटने कि ईमानदार कोशिश होती है! यह अहसास पूरे समय दिन भर बना रहता है- आओ, थोडी-सी खुशी जिंदगी में मुझसे भी ले लो! जिंदगी इतनी बुरी भी नहीं है, न ही हम सबका बनाया यह तंत्र!
उम्मीद बांटता हूँ मैं, कर लो थोड़ा यकीन
गणतंत्र की किरण चूमेगी फिर जमीन
हलकी उर्जा, थोडी चमक , खुशी महीन
आओ मिलकर बटोरें, छितराएं नहीं..
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