बसंत पंचमी!
कितने वर्ष बीत गए, जब माँ सरस्वती की आराधना का दिवस धूमधाम से मनाया करता था
लगभग एक महीने की तैयारी के बाद इस दिन वीणा वादिनी की प्रतिमा के समक्ष हम सभी विद्यार्थी पूरी श्रद्धा के साथ नत मस्तक हो निराला की पंक्तियाँ गाते थे--
वर दे वीणा वादिनी वर दे,
प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव,
भारत में भर दे...
संस्कृति से जुडाव का, विद्यालय स्तर पर इससे बेहतर और कोई आयोजन मुझे नज़र नहीं आता था...
बीते वर्षों में बहुत कुछ यहाँ बदला है। क्या यह बदलाव समाज में बदलते मूल्यों का बदलाव नहीं है! क्या हमें नए मानक गढ़ने चाहिए इन मूल्यों को परखने के लिए! नए समाज का नया मानक होना ही चाहिए। कोई भी मानक चिर स्थायी नहीं हो सकता। गति प्रकृति का नियम है, यह एक सतत प्रक्रिया है। परन्तु क्या हमने नए मानक गढ़ने के सही प्रयास किए हैं? क्या हममे क्षमता है, नए मानक गढ़ने की? यह दायित्व हम सबका है...
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