गुरुदत्त उर्फ़ बसंत कुमार पदुकोने हिंदी सिनेमा के लिए एक पहेली की तरह हैं. उनकी तीन फ़िल्में - प्यासा (१९५७), कागज़ के फूल (१९५९), और साहब बीबी और गुलाम (१९६२)- हमेशा से सिनेप्रेमियों के लिए तीर्थ की तरह हैं. इन श्वेत-श्याम फिल्मों ने भारतीय सिनेमा को वैश्विक पहचान दी है. समय गुजरने के साथ ये और बेहतरीन दिखती हैं. कहानी, पटकथा, गीत-संगीत, अदाकारी, निर्देशन की बारीकियां, छायांकन, प्रकाश और अन्धकार का संयोजन, और सामाजिक सरोकार, सभी ने इन फिल्मों को classic बनाया है.
पहली दो फिल्मों का निर्देशन गुरुदत्त ने किया और तीसरी का अबरार अल्वी ने.'प्यासा' एवं 'साहब बीबी और गुलाम' को दर्शकों ने काफी सराहा, पर 'कागज़ के फूल' नकार दी गयी.
'प्यासा' की कहानी चंद्रशेखर प्रेम के उपन्यास पर आधारित है; पर इसकी पटकथा को सशक्त बनाया अबरार की कलम ने. मौकापरस्त ज़माने में कवि की कशमकश और समाज के अनजान, पर रोजमर्रा के चरित्रों का बड़प्पन, इन सबके इर्द-गिर्द घुमती है कहानी. साहिर के गीतों की तल्खियाँ आज इस फिल्म की पहचान सी बन चुकी हैं.
'कागज़ के फूल' को 'सिटिज़न केन' (१९४१) सी कलात्मक उत्कृष्टता का दर्ज़ा उपलब्ध है. फिल्म के कई दृश्य आज सिनेमा की प्रमुख किताबों (जैसे ऑक्सफोर्ड बुक ऑफ़ सिनेमा) में दर्ज हैं. कैफ़ी की 'देखी ज़माने की यारी' पूरे समय कहानी में गूंजती रहती है. दोनों फिल्मों में तत्कालीन समाज के दोगलेपन का अंकन है तो, इन दोनों से दीगर 'साहब, बीबी और गुलाम' सामंती युग के ढहते चरित्र को उकेरता है. यह फिल्म प्रसिद्द उपन्यासकार बिमल मित्र के प्रसिद्द उपन्यास पर आधारित है.
अगर मैं इन तीनों फिल्मों की खूबियाँ ढूंढूं तो वो कुछ इस तरह दीखती हैं :
१. साहिर, कैफ़ी और शकील के बेहतरीन गीत
२. बर्मन दादा और हेमंत कुमार का खूबसूरत संगीत
३. मूर्ती की लाजवाब सिनेमाटोग्राफी
४. मीना कुमारी की लरजती आवाज़
५. 'साकिया आज मुझे नींद नहीं आएगी' का फिल्मांकन
६. 'जिन्हें नाज़ है हिंद पर'
७. गीता दत्त का दिल को छूनेवाला स्वर
८. रहमान की उत्कृष्ट अदाकारी ...........